About Rabari Culture
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Rabari Culture India
Rabari Culture Facts
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traditional culture of rabari
Rabari traditions
रबारी/ रायका एक स्वदेशी देहाती समुदाय है, जो राजस्थान, गुजरात और सिंध के बड़े हिस्से में निवास करता है।
रबारी/रायका समुदाय के लोग अपने को भगवान शिव की संतान मानते है। वो इस बात में पूर्ण विश्वास रखते है कि ऊँटो के देखभाल के लिए भगवान शिव ने उन्हें उत्पन किया है। राईका/ रबारी  सर्वप्रथम ऊँटो को पालने वाली जाति है, जब वो हिमालय कैलास से उत्तरप्रदेश, हरियाणा होते हुए राजस्थान और गुजरात के कच्छ में आये तब उन्होंने गाय, भेड़, बकरी को पालना शुरू किया। राजा-महाराजाओं के समय राईका/रबारी साधन संपन्न जातियों में एक थी। क्योंकि उस समय सारा परिवहन का कार्य ऊँटो के जरिये किया जाता था। राज व्यवस्था में रबारी/राईका एक साहसी और विश्वासी कौम थी। जब आवश्यकता पड़ी तब तब उन्होंने अपना पराक्रम और शौर्य का भी प्रदर्शन किया है। निडर और साहसी कौम होने के कारण यह जाति राज व्यवस्था में राजभवन की बहिन बेटियों को सही सलामत उनके गंतव्य तक पहुंचाने तथा राजा महाराजाओं के गुप्त सन्देश पहुंचाने का कार्य बखूबी से निभाती थी। इसलिए इसे वचन की पक्की और बेहद ईमानदार कौम माना गया है। इन्होने राजशाही व्यवस्था में (पगी) पथ प्रदर्शक की अहम भूमिका अदा की है। प्रकृति के साथ जुड़कर जीवन जीने की कला रबारी जाति में है। रबारी/राईका समुदाय के लोग पद्चिन्ह के बारे में गहरा ज्ञान रखते है, यह ज्ञान उन्हें परंपरागत रूप से मिला है। वो किसी पशु का पद्चिन्ह देखकर उसकी उम्र और तय दुरी का अनुमान लगा लेते है। 



सार्वजनिक जीवन 

मुख्यत रबारी/ राईका घुमन्तु जीवन जीते है। वो अपने मवेशी और पशुओं के साथ एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवास करता है। पशुओं के चारे की तलाश में हजार मील  तक सफर करता है। रास्ते में आने वाली कठिनाइयों का सामना करते है और ज़्यदातर अपना जीवन जंगलो में बिताते है। जंगली हिसंक जानवरों से लोहा लेने तथा उनके साथ ताल मेल बैठाकर जीवन में निरंतर आगे बढ़ने का पारम्परिक ज्ञान अनूठा है। एक अनुमान के अनुसार रबारी/ रायका अपने जीवनकाल में पृथ्वी के चार चक्कर लगाने जितना सफर तय कर लेते है। इन्होंने थार और कच्छ की संस्कृति को बचाकर रखा है और संजोकर रखा है।  थार मरुस्थल का इतिहास ऊँट के बिना अधूरा सा लगता है। रबारी/ राईका समुदाय ने ऊंट की स्वदेशी नस्लों के सवर्धन के साथ बढ़ावा दिया है। जिसमें मुख्यत मेवाड़ी ऊंट, जैसलमेरी ऊंट, बीकानेरी ऊंट, खराई ऊंट जैसी नस्ल तैयार करने में इस समुदाय का योगदान बहुमूल्य रहा है। जैसलमेरी ऊंट को नाचना ऊंट भी कहते है, जो आज सीमा सुरक्षा बल के पास है जो हर वर्ष गणतंत्र दिवस पर दर्शकों से तालियां बटोरते है। बीकानेरी ऊंट माल ढ़ोने, खेत की जुताई करने में सबसे अग्रणीय है। खराई ऊंट को कच्छ के तैरने वाले ऊंट के नाम से भी पहचाना जाता है, इस ऊंट की विशेषता है यह समुंद्र के पानी में 4 से 5 किलोमीटर अंदर तक तैरकर टापू पर चारे की तलाश में चला जाता है। खराई ऊंट की नस्ल कच्छ के रबारी समुदाय के पास है। रबारी/ राईका समुदाय के लोग ऊँटो की बीमारियों का इलाज  अपने परम्परागत ज्ञान के अनुभव से देशी जड़ी बूंटी से कर देते है। वे ऊँटो के झुंड को स्थानीय भाषा में "टोला" कहते है। रबारी/ राईका समाज के लोग अपनी नस्ल की शुद्धता बनाये रखने के लिए मादा ऊंटनियों को नहीं बेचते थे। रबारी/ राईका समुदाय पूर्ण रूप से शाकाहारी होता है और ऊँट को कुल पशु के रूप में मानते है, इसलिए वह उन्हें काटने या वध करने के लिए सांस्कृतिक परम्परा के अनुसार अनुचित या अवैध मानते है। एक समय तक वो ऊंटनी के दूध का व्यपार करना भी अनुचित मानते थे, वो इस बात में विश्वास रखते थे कि भगवान शिव ने ऊंट उन्हें व्यपार के लिए नहीं सौंपे है बल्कि सेवा के लिए दिए है। रबारी/ राईका जाति के लोग ऊंटनी के दूध को अमृत सामान मानते है, वो इसे बड़े चाव से पीते है। ऊंट लंबी दुरी तय करता है, वह अनेक प्रकार के घास फुस को आहार के तौर पर लेता है, जिससे दूध की गुणवता 14 से 15 प्रतिशत बढ़ जाती है,  जो रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है। ऊंटनी का दूध पौष्टिकता के साथ-साथ अनेक गुणों से भरपूर होता है। जो इन्हें अनेक बिमारियों से बचाता है और हष्ट-पुष्ट लंबी कदकाठी के साथ एक लम्बा जीवन प्रदान करता है। बीकानेर उष्ट्र अनुसंधान केंद्र के सर्व के अनुसार राईका/ रबारी जाति के लोगों में शुगर(डायबिटीज) जैसी भयंकर बीमारी नगण्य है, यह ऊंटनी के दूध का ही कमाल है। 93 उम्र के ऊंट पालक हरजीराम राईका बताते है, कि जब वह अपनी युवा अवस्था में ऊंट चराते थे- 6 महीने तक लगातार सिर्फ ऊंटनी के दूध के सहारे रहते थे, अन्य आहार के गांव आने पर ही दर्शन होते थे। वह बताते है कि अरावली के पहाड़ों और जंगलो में ऊंटनी का दूध ही जीवन का आधार होता था, ऊंटनी के दूध से मुँह में फिकाई (फीका पन) आ जाती थी, तो थोड़ा ऊपर नमक चबा लेते थे।


वेशभूषा एवं आभूषण 

rabari clothing

What do rabari people wear?

rabari traditional dress

रबारी/ रायका समुदाय के पुरुष कशीदे वाली मोटी श्वेत धोती, बदन पर अंगरखा तथा सिर पर लाल रंग की पगड़ी पहनते है, बुजुर्ग लोग ज्यादातर सफ़ेद पगड़ी बांधते है। पगड़ी का साइज लगभग 6 से 7 मीटर का होता है,  विशेष त्योहारों पर जरी एवं गोटे-पट्टी की पगड़िया धारण करते है। हाथों में चांदी का मोटा कड़ा एवं कानों में सोने की बनी बालियां पहनते है। 

रबारी धर्म

rabari religion

रबारी समुदाय के लोग सच्चे धर्मनिष्ठ और कटर धार्मिक हिन्दू धर्म का पालन करने वाले होते है। रबारी जाति के लोग अपनी उत्पत्ति भगवान शिव से मानते आये है, इसलिए भगवान शिव की पूजा करते है। भगवान शिव के अलावा भगवान राम और श्री कृष्ण की भी पूजा करते है। धार्मिक पुस्तक रामायण, गीता, भागवत पुराण का अनुसरण करते है उनके नियमो का पालन करते है। इसके अलावा मुख्यतः कुलदेवियों में मां पार्वती, चामुंडा माता, मिहाय माता, मोमाया माता, विहत माता, बयाण माता,  आदि की पूजा करते है। कुछ कुलदेविया गोत्र के हिसाब से पूजी की जाती है। लोकदेवताओं में शूरवीर पाबूजी राठौड़, एवं गोगा जी और रामदेव जी, मोमाजी को भी पूजते है। साधु-संतों में वड़वाला देव, मस्तनाथ जी, वालीनाथ जी, रूपनाथ जी एवं जेतेश्वर जी को श्रद्धा से मानते है एवं उनकी पूजा करते है। 
कुते और गाय को रोटी देना, भूखे को भोजन करवाना, चींटियों और पक्षियों को दाना डालना, गरीब की सहायता करना आदि हिन्दू धर्मो के नियमों का पालन करते आये है। 

गुजरात में रबारियों का गुरुद्वारा दुधरेज  वड़वाला धाम है, राजस्थान में जेतेश्वर धाम सिणधरी बाड़मेर व श्री राम रायका मंदिर पुष्कर, सारणेश्वर महादेव और हरियाणा में बाबा मस्तनाथ अस्थल बोहर धाम रोहतक मुख्य धार्मिक स्थलों में से है। 

गुजरात के वड़वाला धाम दुधरेज में त्रिमूर्ति भगवान राम, लक्ष्मण, जानकी जी की पूजा की जाती है। यहाँ रबारी समाज के लोग बढ़चढ़कर भाग लेते है, अपनी आमदनी का कुछ हिस्सा धर्म-कर्म के लिए इस गुरुद्वारे में भेंट चढ़ाते है। 
 

उत्सव और त्योहार मेला

rabari festivals

rabari tribe festival

रबारी जाति का मुख्य त्यौहार होली, दीपावली, शिवरात्रि, नवरात्रि, जन्माष्ठमी है, इन्हें धूमधाम से मनाते है।

राजस्थान में सारणेश्वर महादेव मंदिर सिरोही में भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष  देवझूलनी एकादशी को दो दिवसीय वार्षिक उत्सव मेला का आयोजन किया जाता है, जिसमें रबारी, देवासी समाज के लोग अपने पारंपरिक वेशभूषा में नजर आते है।

इसी प्रकार हरियाणा में बाबा मस्तनाथ  अस्थल बोहर धाम रोहतक में फाल्गुन माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी से नवमी तक तीन दिवसीय मेले का आयोजन होता है, जिसमें हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, से रबारी समुदाय के लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते है। नवमीं के दिन बाबा मस्तनाथ के प्रथम भोग रबारी समुदाय द्वारा लगाया जाता है।