राजस्थान में रेबारीयों का अनोखा मेला



राजे-रजवाड़े का दौर तो खत्म हो गया। न राजा रहे और न ही उनका राजपाठ। लेकिन हां राजे-रजवाड़े का खानदान आज भी ज़रूर मौजूद है। राजस्थान के इकलौते हिल स्टेशन माउंटआबू से 70 किलोमीटर दूर सिरोही में एक सदियों से एक अजीबो गरीब परंपरा आज भी चली आ रही है। जलझुन्नी ग्यारस अर्थात भगवान कृष्ण के जलवों के दिन सिरोही राजघराना अपना राजपाठ दो दिन के लिए रेबारी यानि देवासी जाति के लोगों को सौंप देते है।
सिरोही। सारणेश्वर मंदिर पर एक दिन के लिए रेबारी समुदाय का अधिपत्य की असलियत वीरता और श्रद्धा से भरी हुई है। बात है 1298 ईस्वी की, जब दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने सिद्धपुर के सोलंकी राजवंश को नेस्तनाबूत करके वहां पर रूद्रमाल मंदिर के शिवलिंग को उखाड़ लिया। इसे गाय की लहूलुहान चमड़ी में लपेटा। हाथी के पांव में जंजीरों से बांधकर घसीटता हुआ दिल्ली की ओर बढ़ गया। सिरोही के पूर्व राजघराने के वंशज व इतिहासविद् रघुवीरसिंह देवड़ा ने बताया कि उस समय की उत्थान पर रही चंद्रावली महानगरी तक पहुंचा तो सिरोही के महाराज विजयराज को इसकी सूचना मिली।
Rabari Dewasi Festival
उन्होंने इस संबंध में एक पत्र अपने भाई जालौर के महाराव कान्हड़देव तथा अपने संबंधी मेवाड़ के महाराणा रतनसिंह (महारानी पद्मिनी के पति) को पत्र लिखकर इस घटना के बारे में बताया। अलाउद्दीन खिलजी अपनी सेना के साथ सिरणवा पहाडियों पास तक पहुंचा तो महाराव विजयसिंह को कान्हड़देव के पुत्र वीरमदेव और उनकी सेना तथा मेवाड़ की सेना की मदद मिल गई। इन तीनों सेनाओं ने अलाउद्दीन खिलजी को परास्त करके दीपावली के दिन शुक्ल कुण्ड के सामने रूद्रमाल के शिवलिंग की स्थापना की।
इस युद्ध में तलवारें चली और दुश्मन को जबरदस्त नुकसान हुआ इसलिए इस मंदिर का नाम क्षरणेश्वर महादेव रखा जो बाद में अपभ्रंशित होकर सारणेश्वर के रूप में विख्यात हुआ। अपनी हार से कसमसाए अलाउद्दीन खिलजी ने दस महीने बाद 1299 में फिर से सिरोही पर आक्रमण कर यहां के महाराव का सिर कलम करने और मंदिर को नुकसान पहुंचाने का प्रण किया। लेकिन, तब सिरोही की प्रजा ने यहां के महाराव का साथ देकर सारणेश्वर के शिवलिंग को बचाने की प्रतिज्ञा की। आम्बेश्वर और सारणेश्वर के बीच की पहाडियों से रेबारी समुदाय ने गोपणों से अलाउद्दीन खिलजी की सेना पर आक्रमण करके उनके पैर उखाड़ दिए।
उस समय बंदूकों तथा तोपों को चलन नहीं होने से तीर और तलवारों से दिल्ली सुल्तान की सेना गोपणों को मुकाबला नहीं कर पाई। देवड़ा ने बताया कि हारने के बाद युद्ध स्थल से कुछ दूरी पर स्थित सुल्तान के शिविर में खिलजी को कोढ़ हो गया। भादव की धूप में विचलित उनके कुछ कुत्ते प्यास बुझाने के लिए शुक्ल कुंड में डुबकी लगाकर सुल्तान के कैम्प में गए। उन्होंने अपने कान हिलाए तो पानी की कुछ बूंदे सुल्तान के शरीर के जिन हिस्सों पर गिरी वहां पर कोढ़ ठीक हो गया। 
फिर सुल्तान के सेनापति मलिक काफुर ने शुक्ल कुण्ड के औषधीय पानी की बात सुल्तान को बताई। सिरोही महाराव ने मानवता के नाते शुक्लकुण्ड का पानी खिलजी के शिविर में पहुंचाया तो वह ठीक हो गया। उसके बाद फिर सारणेश्वर मंदिर पर आक्रमण नहीं किया। देवड़ा ने बताया कि देवझूलनी एकादशी के दिन ही रेबारियों ने सुल्तान की सेना के पैर उखाड़े थे इसलिए सुल्तान ने एक रात के लिए सारणेश्वर मंदिर को पूरी तरह से रेबारी समुदाय को सौंप दिया। उस दिन सिर्फ रबारी और वो भी अपने पारंपारीक पोशाकमे ही मेले मे जा सकते है। कलेक्टर या मुख्य मंत्री को उस दिन मेले मे आना हो तो उन्हे भी रबारी पोषाक पहनना पडता है, अन्यथा वो भी नही आ सकते।

लाल पगड़ी और सफेद पोशाक में रेबारी देवासी  
समाज के लोग जिन्हें परंपरा के मुताबिक सिरोही के राजा ने दो दिनों का राजपाठ सौंप दिया जाता है । लाखों देवासी भाई , जो इस अदभुत परंपरा को निभाने के लिए देशभर से यहां पहुंचे हैं।
महिला और पुरुष सभी एक ही वेशभूषा और पोशाक में दिखाई देते है । सदियों यह परंपरा निभाई जा रही है, माउंटआबू के करीब सिरोही राजघराने के राजमहल में। यहां इनका अब कोई शासन तो नहीं लेकिन सदियों चली आ रही परंपरा के मुताबिक दो दिन के लिए राजपाठ देवासी जाति के लोगों को सौंपा जाता है। एक साल में यह सिर्फ एक बार ही होता है कि देवासी समुदाय के लोग एक ही पोशाक में इतनी बड़ी संख्या में यहाँ इकट्ठा होते है।

तभी से उन्हें जलझुन्नी ग्यारह के दिन जो भगवान कृष्ण के जलवों का दिन कहा जाता है,राजपाठ सौंप दिया जाता है । इस दिन सिरोही राजघराने से जुड़े सभी लोग महल छोडकर कही और रहते है। दो दिन बीत जाने के बाद ही वो महल में आते है इस दौरान पूरा राजपाठ देवासी जाती के कब्जे में रहता है और संचालन वही करते हैं।
उन्हें राजशाही पगड़ी भी सौंपी जाती है। राजमहल में उनका तिलक किया जाता है। सिरोही के कलेक्टर दूसरे दिन पूरे सिरोही में छुट्टी का ऐलान करते हैं। इस दिन माउंटआबू सहित पूरा सिरोही बंद रहता है। दो दिनों तक राजपाठ चलाने के बाद देवासी लोग राजघराना सिरोही के वंशजों को सौंप देते है।
ऐसा राजस्थानी रेबारीयों का मेला जीवन मे इक बार जरूर देखने लायक है। तब से यह परंपरा निरंतर निभाई जा रही है।