राजस्थान के रैबारी (अर्ध -घुमंतू जनजाति)

Raibari (Semi-nomadic tribe) of Rajasthan

Semi Nomadic Tribe

 निम्बा राम (nimbaramjlor@gmail.com) द्वारा संकलित

raika tribe in rajasthan


             पश्चिमी राजस्थान में हम रैबारी (अर्ध घुमंतू जनजाति) में बहुतायात में रहते है ।  वस्तुत: हम रेगिस्तान की एक चरवाहा जनजाति है जो कि सदियों से अर्ध-घुमंतू और घुमंतू जीवन शैली में रहते आये है। भारतवर्ष में ऊंट को पालतू प्राणी बनाने का श्रेय रैबारी जनजाति को ही है। हमारी जीवन पद्धत्ति मुख्य रूप से ऊंट, भेड़, बकरी और गाय चराना रहा है और अभी भी यही है। इस सन्दर्भ में यह उल्लेख करना यहां पर उचित होगा कि राजस्थान के रैबारी अर्ध-घुमंतू चरवाहा का जीवन व्यतीत करते हुए रेवड़ (झुंड, एक झुण्ड में करीब 100-150 भेड़ होती है) के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर चारे के तलाश में निरंतर प्रवास (माइग्रेशन) करते रहते है। प्रवास का क्षेत्र  मौसम (सीजन) और चरागाह के आसान उपलब्धता के आधार पर तय होता है।  यह  प्रवास राजस्थान के समीपवर्ती सारे राज्यों से होकर गुजरता है। यह हजारों वर्षों पुरानी उस परम्परा का हिस्सा  है । हमारी जनजाति इसी परम्परा को सदियों से प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भी आज भी जीवित बनाये रखने हेतु घुमंतू जीवन शैली  व्यतीत कर रही है।

 2. हम  भगवान पशुपतिनाथ महादेव के वचनो की पालना में चरवाहा के तौर पर जीवन जी रहे है, हमने पशु को कभी व्यवसाय के तौर पर नहीं देखा, उन्हें कभी खूंटो से नहीं  बाँधा है। पशुधन हमारे  परिवार के अभिन्न अंग होने के कारण पशुओ के रहने के स्थान के साथ ही हमारा निवास स्थान भी लगा रहता है, निवास स्थान दोनों (हम और हमारे पशु धन) साझा करते है। सदियों से दूध और मादा जानवर बेचना वर्जित रहा है। विश्वपटल पर भी हम एकमात्र ऐसी चरवाहा जनजाति है जो पशुधन का मांस कभी नहीं खाती और हम पशुधन एवं अपने बच्चों में कभी अंतर नहीं समझते। जिस  प्यार से बच्चे का पालन होता है उसी प्यार से पशुधन को भी ह्रदय से संजोय रखा जाता है। भारत के अर्धशुष्क क्षेत्र में पशुधन के सरंक्षण में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हुए हम जैविक पशु उत्पाद प्रदान कराते है।

 3. लोग हमें सिंधु सभ्यता के संस्थापक[1] के तौर पर जानते है, पर हमें इससे ज्यादा गर्व  माननीय महोदय का ध्यान हमारी स्वदेशी नस्लों  की और आकृष्ट करते हुए होता है कि इन स्वदेशी नस्लों की शुद्धत्ता को हमने आज दिन तक शुद्ध आनुवांशिक नस्ल के रूप में संजो कर रखा है। परन्तु बदलते युग ने हमारे जीवन में जो भूचाल लाया है, उसका सम्पूर्ण वर्णन हम कभी भी बयान नहीं कर सकते। आपमें,  हमें आशा की किरण प्रतीत होती है इसलिए हमारी समस्याएं और  सुझाव आपके समक्ष इस पत्र के माध्यम से प्रकट कर रहे है।

4. समकालीन विश्व और हमारी समस्याएं

              प्रमुख राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय शोधार्थियों, गैर सरकारी संगठनों, यात्रियों, समाजशास्त्रियों और सरकार द्वारा स्थापित आयोगों द्वारा किए गए विभिन्न अध्ययनों में रैबारियों के चरवाहा घुमंतू जीवन से संबंधित समस्याओं पर चर्चा की गई है। समकालीन विश्व की बदली हुई प्रस्थितियों ने हमारे और हमारे पशुओं के समक्ष जो समस्याएं उत्पन्न की है, उसका संक्षिप्त में विवरण इस प्रकार है:

4.1  हम चरवाहों के खिलाफ बड़े पैमाने पर फैलाये गए तीन मिथकों[2] (Pastoralists degrade the environment because they hoard animals, Pastoralists must be settled for their own good and to preserve land for other uses, and Pastoralists create conflict ) से नीति निर्माता प्रभावित होने के कारण आज दिन तक चरवाहों के प्रति कोई स्पष्ट चरवाहा नीति'[3] या 'राष्ट्रीय चरवाहा नीति' नहीं बन पाई है, जो कि चरवाहों की सारी समस्याओं के निराकरण का आधार स्तम्भ हो सकती है। औपनिवेशिक मानसिकता भी एक बड़ी समस्या है और इसलिए एक बड़ी  चिंता, नीति निर्माता को आश्वस्त करना मुश्किल है कि शुष्क क्षेत्रों और पहाड़ों में पशु चारण अभी भी पारिस्थितिक रूप से जीवन का सबसे व्यवहार्य रूप (viable form) है।

4.2  श्री जी बी मुखर्जी[4]  लिखते हैं कि ये चरवाहे  अपने पशुओं के साथ कॉमन्स (शामलात) का सबसे अधिक उत्पादक उपयोग कर रहे हैं। वे आगे कहते[5]  हैं कि औपनिवेशिक शासन की  'वैज्ञानिक' वानिकी अवधारणा (अर्थात केवल लकड़ी और राजस्व के लिए वन), खाली भूमि के लिए 'वैज्ञानिक' प्रबंधन (अर्थात, कोई चराई नहीं) और अलग-अलग घरों और पशु फार्मों से दूध और मांस उत्पादन,  राज्य के अधिकारियों के मन को प्रभावित किया और लुभाया। पशुचारण जारी रखने का सुझाव देने वाले किसी भी व्यक्ति को अंधकार युग में माना जाता था। अधिकारियों के लिए, चारागाहों को इनपुट-आउटपुट मॉडल के साथ प्रबंधित किया जाना था, उनके दिमाग में, जहां जानवरों ने ब्राउज़ किया (चरें), वहां वनस्पति विकास में गिरावट आएगी। उन्होंने इस तथ्य की अनदेखी की कि अधिकांश कॉमन्स मौसम की बदलती परिस्थितियों के अनुसार उत्पादकता के मामले में उतार-चढ़ाव करते हैं - संसाधनों की कमी के कारणों में से केवल एक कारण अधिक चराई है। उतार-चढ़ाव की अवधारणा पारंपरिक इको-सिस्टम प्रबंधकों के सीखने की दृष्टि से परे थी, और अक्सर इसके विपरीत थी। औद्योगीकरण के साथ, उत्पादन-उन्मुख मॉडल पर जोर दिया गया: "गैर-प्रदूषणकारी समुदायों को असभ्य और बर्बर के रूप में ब्रांड करना औद्योगिक ढांचे का एक परिणाम है ... फिर सत्ता के सभी उपकरणों का उपयोग , शामलात (Commons) के विनष्टीकरण को सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है।" श्री जी बी मुखर्जी लिखते हैं कि यह मानसिकता धीरे-धीरे बदल रही है लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा होने से पहले भारत के चरवाहों के लिए मौत की घंटी बज सकती है। दिलचस्प बात यह है कि कॉमन्स और घास के मैदानों के प्रबंधन के संबंध में पश्चिमी मॉडल को अपने आप में ही बार बार चुनौतियां मिल रही है।

4.3 स्थायी बसे हुए आबादी और घुमंतू चरवाहों  के बीच पारंपरिक संबंध टूट गए हैं और  बसे हुए लोग  घुमंतू चरवाहों   के लगभग खिलाफ हो गए है। इस सन्दर्भ में डॉ. ए बी बोस, संयुक्त निदेशक (सामाजिक योजना), योजना आयोग, भारत सरकार, नई दिल्ली  ने 1967 में घुमंतू जनजातियों पर  गुंटूर  में आयोजित  संगोष्ठी में एक पेपर प्रस्तुत करते हुए निष्कर्ष निकाला कि  वास्तव में,  अब बसी हुई स्थायी  आबादी ,  अपने गांवों में से घुमंतू चरवाहों  के निकलने  पर  अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं देती है।[6] श्री आर आर प्रसाद ने अपनी रिपोर्ट[7] में पाया कि स्थायी बसे हुए आबादी  और घुमंतू चरवाहे, जो अतीत में मुख्य रूप से पारंपरिक और कम गहन भूमि उपयोग के माध्यम से अत्यधिक संसाधन शोषण के  रूप में एक दूसरे के सामने निरोध का कार्य करते थे  और इसलिए एक पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखती थी। समय बीतने के साथ, बढ़ी हुई जनसंख्या वृद्धि पारंपरिक संबंधों में टूटने का कारण बन रही है, जिसने शुष्क वातावरण में  घुमंतू पशुचारण को बनाए रखना बेहद कठिन व्यवसाय बना दिया है। इस सन्दर्भ में श्री  आर आर प्रसाद ने 1983 में 6 चरवाहों[8]  के स्थायी बसे हुए आबादी  और घुमंतू चरवाहे संघर्ष में हुई मौत का उदाहरण दिया है। इसी प्रकार  मध्य प्रदेश में वन अधिकारियों द्वारा भेड़ों की सामूहिक हत्या पर प्रेस में तीखी आलोचना के बाद, स्थानीय जनप्रतिनिधि द्वारा घुमंतू चरवाहों के बारे में 'नई दुनिया' में एक लम्बा लेख लिखते हुए  चरवाहों को बंदूक, कुल्हाड़ी, लाठी और 'गोफन' जैसे हथियारों के साथ ,गोफानों से लैस महिलाएं, बंदूक के साथ युवक और चारों ओर 50 पालतू कुत्ते चलने वाले आदि  सशस्त्र बल के साथ चलने वाले अपराधियों के रूप में वर्णित किया।[9] इसी तरह राजस्थान में जनता सरकार के काल में एक जनप्रतिनिधि जो बाद में राजस्थान के मुख्यमंत्री बने ,  स्वयं  'भेड़ भगाओ  समिति'  के अध्यक्ष थे। श्री आर आर प्रसाद के अनुसार, उस वर्ष स्थानीय किसानों द्वारा आधा दर्जन चरवाहों को मार डाला गया था और तत्कालीन  सरकार ने जनप्रतिनिधि के खिलाफ गंभीर अपराध की पुलिस रिपोर्ट दर्ज की थी। वस्तुत:,  यह एक उदाहरण है कि कैसे बसी हुई स्थायी आबादी घुमंतू चरवाहों के खिलाफ होती चली  गई। इस प्रकार 'यह सवाल से परे है कि घुमंतू चरवाहे  एक विशेष दुनिया है जो कृषि सभ्यताओं की दुनिया के विरोध में खड़ी है[10]' नामक मिथक बहुत अच्छी तरह से स्थायी आबादी के मन में स्थापित कर दिया गया है। आयोग(National Commission for Denotified, Nomadic and Semi-Nomadic Tribes, Ministry of Social Justice & Empowerment, Government of India, 2008)  ने भी अपनी रिपोर्ट[11] में घुमंतू चरवाहों  के खिलाफ बसे हुए  स्थायी आबादी या किसानों द्वारा पैदा की गई समस्याओं को वर्णित करते हुए माना है कि चरवाहों का जीवन बहुत कठिन हो गया है। श्री अरुण अग्रवाल[12]ने भी  प्रवासी चरवाहों और स्थायी  किसानों के बीच संबंधों में बढ़ती 'असममिति /विषमता ' पर भी प्रकाश डालते हुए इसके पीछे विध्यमान कारणों के बारे में लिखा है कि किसान अब भेड़ों  की खाद पर पहले की तरह निर्भर नहीं रहे। अकार्बनिक उर्वरक ( केमिकल फ़र्टिलाइज़र ) व्यापक रूप से उपलब्ध हैं और कई किसान उन्हें भेड़ की खाद से अच्छा मानते हैं। दूसरा, सिंचाई की अधिक उपलब्धता के साथ, किसान तेजी से अपने खेतों को घेर लेते हैं और/या हर साल दो से अधिक फसलें उगाते हैं। वनस्पति के विकास और संरक्षण के लिए सरकार द्वारा भी बड़े चराई  क्षेत्रों को  घेर लिया गया है। तीसरा, गाँव की सामान्य भूमि (शामलात )पर दबाव बढ़ रहा है और भूमिहीनों के बीच अतिक्रमण और सामान्य भूमि (commons) के वितरण के कारण सामान्य भूमि (शामलात ) का क्षेत्रफल घट रहा है। सामान्य भूमि ( कॉमन लैंड ) भी घट रही है क्योंकि ग्राम पंचायतें (परिषद) सरकारी कार्यक्रमों का लाभ उठाती हैं जो गाँव के कॉमन्स को घेरने के लिए वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करती हैं। इसी समय, सामान्य भूमि पर चरने वाले ग्रामीण जानवरों की पूर्ण संख्या में वृद्धि हुई है। इन घटनाओं का अर्थ है कि प्रवासी चरवाहों की भेड़ों के लिए कम चारा उपलब्ध है। बसे हुए स्थायी आबादी के बीच इन विकासों के विपरीत, चरवाह अभी भी  प्रवास पर बहुत अधिक निर्भर हैं। हर साल राजस्थान से पलायन करने वाले जानवरों की संख्या और प्रवास की अवधि दोनों में वृद्धि हुई है। पानी और ईंधन की लकड़ी, हमेशा अर्ध-शुष्क वातावरण में दुर्लभ है , अब चरवाह प्रवास मार्गों के गीले हिस्सों पर भी आसानी से उपलब्ध नहीं हैं; यह ही नहीं अक्सर गांव के निवासियों को भी खाना पकाने के लिए पर्याप्त ईंधन लकड़ी इकट्ठा करने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है।

4.4  उभय प्राकृतिक संसाधन (Common Resource Property), जंगल, चरागाह , गोचर , राजकीय पड़त भूमि , तालाब , पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और प्राकृतिक संसाधनों की उपज के सिकुड़ने( shrinking of commons)  के कारण न केवल पशुधन बल्कि हम भी संकट में है। हमारी  (रबारी चरवाहों) मौजूदगी पशु जैव विविधता के लिए बहुत महत्वपूर्ण है जो कि पशुधन, पशुपालकों और स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र के बीच पीढ़ियों की जटिल परस्पर क्रिया के माध्यम से विकसित हुई है। इसी तरह  वनरोपण एवं चारागाह विकास के तहत राजस्थान का लगभग 133552 hactare एवं 19269 RKM क्षेत्र, वनरोपण में शामिल कर लिया गया।  यह क्षेत्र पहले घुमंतू चरवाहों के लिए प्रयोग होता था , वनों की रक्षा के नाम पर सदा सदा के लिए बंद कर दिया।[13] 

4.5  आज हम विभिन प्रकार की समस्याओं से जूझ रहे है, जिनमे मुख्यत: जैविक खाद की जगह रासायनिक खाद के उपयोग के कारण और उसको मिल रही सब्सिडी के कारण खेतिहर स्थायी किसानो का पहले की तरह पारम्परिक सबंधो का अटूट नहीं रहना यानि  घुमंतू चरवाहों के प्रति किसानो का लगाव  का टूट जाना , चरागाह क्षेत्र का सिकुड़ जाना, औपनिवेशिक काल की नीतियों के कारण चरागाह क्षेत्रों का कृषि क्षेत्रों में बदल जाना , भारत - पाकिस्तान विभाजन के कारण बहुत बड़े चरागाह पाकिस्तान में चले जाना और सीमाओं का बंद हो जाना , उभय उपज संसाधन  और शामलात  भूमि का सिकुड़ जाना  , जंगलो में पारम्परिक चराई पर प्रतिबंधित, विलायती बबूलों द्वारा देशीय मरुस्थल वनस्पति पर अतिक्रमण  से मरुस्थलीय परिश्थितिकी का नष्ट होना । इन सबका हमारे पारम्परिक जीवन पद्धति और हमारे पशुओ पर गंभीर प्रभाव पड़ा है। हमारे बच्चे इस पारम्परिक जीवन पद्धति के साथ इतनी सारी कठिनाइयों के साथ जीना नहीं चाहते क्योंकि इस युग में सबका जीवन सरल हुआ है पर हमारा नहीं।  हमारे पास कोई वैकल्पिक  रोजगार  नहीं होने के कारण हमारे बच्चे दिहाड़ी मजदूर होते जा रहे है।  हम एक ऐसे मुकाम पर खड़े है जहां पर हम न ही पारम्परिक जीवन पद्धत्ति का अनुसरण कर सकते है  और न हीं अकुशल श्रमिक बनना चाहते है।

4.6  शामलात भूमि पर सरकारी योजनाओं के नाम पर सरकार द्वारा और  गैर सरकारी लोगों द्वारा अनवरत अतिक्रमण हो रहा है। अन्तत: पशुओं के लिए उपलब्ध  चरागाह भूमि कम हो गई है। बहुत सारे चरागाह क्षेत्र प्रतिबंधित हो गए है हालांकि इससे चरागाह भूमि की उर्वर  शक्ति कम हो गई क्योंकि अब खाद , मूत्र  से चरागाह वंचित हो गए है और दीमक की समस्या पैदा हो गई है।  कठोर बीज वाले पौधे जिसे पशु जुगाली द्वारा ऊपरी कवच को मुलायम कर अंकुरण में मदद करती थी, की संख्या भी घाट रही है।  इसी तरह पारम्परिक प्रवासी मार्गों को  कानूनी मान्यता नहीं होने के कारण आये दिन स्थानीय लोग रास्तों में हमें भिन्न भिन्न तरीके से परेशान करते है। इसी तरह प्रवास के दौरान अत्याचार में स्थानीय पुलिस, प्रशासन  और जन प्रतिनिधियों द्वारा स्थानीय लोगों का हमेशा पक्ष लिया जाता है  चाहे वे  गलत हो या सही।  उनकी ही बात सुनी जाती है , हमको सिर्फ कानून का भय बता कर प्रताड़ना  ही मिलती है।

4.7  आज रासायनिक आधारित खाद को सरकारी सरंक्षण है एवं सब्सिडी के तौर पर  पोषण मिल रहा है जबकि देसी जैविक खाद को किसी प्रकार का सरंक्षण एवं पोषण नहीं है , इसलिए पशुओं के गोबर का न कोई क्रेता सरकारी कंपनी है , न भण्डारण और विक्रय करने वाली सरकारी  कंपनी है।  जैविक उत्पादों ( गोबर, मूत्र , दूध , घी आदि )  के उचित सरंक्षण नहीं मिल पाने के कारण चरवाहा कार्य दिनों-दिन कठिन होता जा रहा है।

4.8  इसी तरह देश में जब कोई भी बड़े राष्ट्रीय राजमार्ग या राज्य राजमार्ग बनते है तो देशी वनस्पति को हटाकर सौन्दर्यकरण वाली वनस्पति और पेड़ लगा दिए जाते है, दिखने में तो यह बहुत सुन्दर पेड़ लगते है परन्तु काम के कुछ नहीं है ( न इनकी छाया है , न इन पर पक्षी घोसले बनाते है, न पत्ते पशुओं के खाने योग्य है , न सुखी लकड़ी कोई काम की ) जिनके सूखे पत्ते किसी भी पशु के भोजन के रूप में  काम नहीं  आते। इससे देशीय वनस्पति भी नष्ट होती है और पारस्थितिकी में पशु- पौधे के विनिमय की प्राकृतिक क्रिया भी बाधित होती है। इसी कारण पहले इन मार्गों पर जब भी पशु चलते थे  तो उनको कुछ न कुछ खाने की वनस्पति मिल जाती थी लेकिन अब ऐसा नहीं रहा है। सड़क किनारे पशुपयोगी वनस्पति और देशीय पौधों का सौंदर्य के नाम पर नष्टीकरण ( कटता है वृक्ष - खेजड़ी , केर , जाल /पीलू , नीम, बरगद , पीपल आदि   और पर्यावरण के नाम पर लगता है- बोगनवेलिआ) हो रहा है। 

4.9  सरकार द्वारा संचालित देसी पशु संवर्धन  योजनाओं में हम घुमक्क्ड चरवाहों को नजरअंदाज कर दिया गया है क्योंकि सारी योजना वाणिज्य को ध्यान में रखकर बनाई गई है । हमको कोई भी योजना घुमंतू जीवन शैली के अनुरूप प्रतीत नहीं होती है अथवा उसमें घुमंतू जीवन शैली के लिए विशेष प्रावधान है, ऐसा प्रतीत नहीं होता है। पुन, हमारे लिए कौनसी योजना बनाई गई है और उपयुक्त है, आज दिन तक हमको नहीं मालूम है।

4.10    हमारे पशुओं का कोई बीमा नहीं होने के कारण भी कभी-कभी दुर्घटना में बहुत बड़ी आर्थिक क्षति  चरवाहों को हो जाती है जो कि भावनात्मक रूप से ऐसे दुर्घटनाओं के कारण पहले से विचलित हो चूका होता है।

4.11    घुमंतू चरवाहा प्रवास, सदियों पुरानी घटना है और पिछली शताब्दी के अंत तक, चरवाहों  के जंगलों, शामलात  और खेती वाले क्षेत्रों में आंदोलन राज्य द्वारा अप्रतिबंधित था और मौसम की प्रणाली द्वारा अधिक नियंत्रित था। पिछले अस्सी  वर्षों में विभिन्न राज्यों ने  उपायों की आड़ में और व्यापक विकास प्रक्रिया द्वारा हमारे  अपने जीवन के तरीके का अभ्यास करने के अधिकार पर अतिक्रमण किया  है।

Raibari Semi-nomadic tribe of Rajasthan



4.12    हमारे जीवन से सम्बन्धित समस्याओं को हमने तत्कालीन माननीय प्रधानमंत्री, भारत सरकार को एक पत्र[14], घुमक्कड़  भेड़पालक  संघों (गोडवाड़ घुमक्कड़ भेड़पालक संघ, मारु घुमक्कड़ भेड़पालक संघ , नागौर घुमक्कड़ भेड़पालक संघ और कच्छी घुमक्कड़ भेड़पालक संघ) के माध्यम से  27 फरवरी 1989 में अवगत कराया था । इसके परिणामस्वरूप  भेड़ प्रवास (Sheep migration) पर राष्ट्रीय कार्यशाला (केंद्रीय भेड़ और ऊन अनुसंधान संस्थान, राजस्थान भेड़ और ऊन विकास विभाग, राजस्थान राज्य सहकारी भेड़ और ऊन विपणन संघ,  इंडियन सोसाइटी फॉर भेड़ और ऊन उत्पादन और उपयोग  एवं ऊन विकास बोर्ड,के सहयोग से) का जयपुर में  6-7 फरवरी 1991 में आयोजन हुआ जिसमें   91 प्रतिभागियों ( वैज्ञानिक , अर्थशस्त्री , फॉरेस्टर्स , प्रसाशनिक अधिकारियों और घुमक्कड़ चरवाहों ) ने  भाग लिया  इस कार्यशाला में 13 अनुशंषाये[15] की गई :

(i)       भेड़ प्रवास को व्यवस्थित तरीके से विनियमित करने के लिए भेड़ प्रवास से संबंधित राज्यों के विभिन्न विभागों के प्रशासनिक प्रमुखों के स्तर पर समन्वय होना चाहिए ताकि चरवाहों को स्वास्थ्य कवर, पानी और ऊन, मांस और जानवर आदि के विपणन जैसी उचित सुरक्षा और अन्य सुविधाएं प्रदान की जा सकें।

(ii)      ऊपर वर्णित सेवाएं प्रदान करने के लिए प्रवास मार्गों पर सेवा केंद्र स्थापित किए जा सकते हैं।

(iii)     भेड़ और भेड़ चरवाहों के विकास के लिए संपर्क स्थापित करने और उचित ध्यान देने के लिए प्रत्येक भेड़ समृद्ध राज्य में अलग विभाग बनाया जाना चाहिए ताकि उन्हें बेहतर भेड़ प्रजनन, प्रबंधन और स्वास्थ्य देखभाल वितरण प्रणाली को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके।

(iv)     भेड़ पालन करने वाले प्रत्येक महत्वपूर्ण राज्य को भेड सुधार के लिए सुपरिभाषित समयबद्ध लक्ष्यों के साथ उपयुक्त दीर्घकालिक शुरुआत विकसित करनी चाहिए और इसे प्राप्त करने के लिए उपयुक्त विस्तार प्रणाली विकसित करनी चाहिए।

(v)      भेड़ प्रवास से संबंधित मामले और विवादों को अंतरराज्यीय परिषद (inter-state council) के दायरे में लाया जा सकता है और चराई शुल्क शुल्क नाममात्र होना चाहिए।

(vi)     ऊन को कृषि उत्पाद  घोषित किया जाना चाहिए और एनसीडीसी चार्टर में शामिल किया जाना चाहिए। कृषि मूल्य आयोग ऊन के लिए राष्ट्रीय समर्थन मूल्य तय कर सकता है।

(vii)    राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर चारागाह विकास और चारा उत्पादन निगमों की स्थापना की जानी चाहिए।

(viii)    राज्यों के भीतर भेड़ों के लिए सिल्वी-चारागाह (silvi-pasture) स्थापित करके निकटवर्ती राज्यों में भेड़ों के प्रवास को कम किया जा सकता है। प्रत्येक राज्य में, दुबले मौसम के लिए  चराई आरक्षित हो । राजस्थान में इंदिरा गांधी नाहर परियोजना के पश्चिमी तट को इस उद्देश्य के लिए आवंटित किया जा सकता है।

(ix)     स्थापित  चरागाह का प्रबंधन पंचायतों, भेड़ किसान सहकारी समितियों, वन विभाग, चारागाह विकास निगम द्वारा किया जाएँ ।

(x)      भेड़ चरवाहों को अपनी जमीन पर चारागाह स्थापित करने और चारे के पेड़ उगाने के लिए सब्सिडी और बैंक ऋण दिया जा सकता है।

(xi)     भेड़ों को पात्र पशुओं की सूची में शामिल किया जाना चाहिए, जिन्हें अकाल के दौरान चारा सब्सिडी और अन्य रियायतों लागू हो।

(xii)     राजस्थान काश्तकारी अधिनियम के अनुसार वर्तमान में गोचर भूमि रखने के लिए भेड़ और बकरियों की गणना गाँव की आबादी में नहीं की जाती है। गाँव में केवल बड़े जानवरों की गिनती की जाती है। राजस्थान काश्तकारी अधिनियम में तद्नुसार संशोधन किया जाना चाहिए और भारी पलायन को रोकने के लिए प्रत्येक गाँव में भेड़ चराने के लिए पर्याप्त क्षेत्र रखा जाना चाहिए।

(xiii)     वर्तमान में वन विभाग पंचायतों द्वारा विकसित आरक्षित चरागाहों में भेड़ों को चराने की अनुमति नहीं है।  इन क्षेत्रों में भेड़ों को चराने की अनुमति दी जानी चाहिए।

4.13    इसी तरह पर्यावरण मंत्रालय के द्वारा 1990 में चराई और पशुधन प्रबंधन पर गठित अंतर-अनुशासनात्मक सलाहकार समूह (Inter-disciplinary Advisory Group) ने भारत सरकार को निम्नलिखित विषयों  पर  अपनी रिपोर्ट[16] दी :

(i)       शामलात  चराई का प्रबंधन

(ii)      वन भूमि पर चराई

(iii)     शामलात और वन भूमि पर चराई और घास काटने के अधिकारों की समीक्षा

(iv)     स्थानीय मांग को पूरा करने के लिए वन क्षेत्रों में वन-संवर्धन का विकास

(v)       कृषि भूमि से पूरक चारा उत्पादन रणनीति

(vi)     अनुसंधान, विस्तार, अवसंरचना और अन्य सहायता के संबंध में संबंधित केंद्रीय मंत्रालयों/विभागों और राज्य विभागों के बीच संगठनात्मक संबंध

ऐसा प्रतीत होता है कि इस समूह की इन अनुशंषाओं को आगे किसी ने सुध ही नहीं ली।   समस्याएं जस की तस है, अत: यह पत्र[17] ( माननीय प्रधानमंत्री, भारत सरकार को, घुमक्कड़  भेड़पालक  संघों के माध्यम से  27 फरवरी 1989 लिखा गया पत्र), आज भी प्रासंगिक है।

4.14    इसी तरह औपनिवेशिक काल में किस तरह चरवाहों पर प्रतिबंध डाले गए (चरागाह सिकुड़ गए, चरागाह  भूमि को खेती में बदला गया , वन कानून लाकर जंगल आरक्षित या प्रतिबंधित किये गए, आपराधिक जनजाति अधिनियम द्वारा उनके विचरण का नियमन किया गया, चरगाह पर चराई के लिए कर लादा गया , मार्गों  को विनियमित किया गया और उन्हें बढे हुए राजस्व कर का भुगतान करना) का सटीक वर्णन राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'सामाजिक विज्ञान (भारत और समकालीन विश्व - I), कक्षा 9 के अध्याय V ( आधुनिक विश्व में चरवाहे ) में मिलता है।[18]   

4.15    इसी तरह 1947 के बाद चराई के लिए सिंध और सिंधु के तट पर चरवाह नहीं जा सकते, जैसा कि आजादी से  पहले जाते थे। भारत और पाकिस्तान के बीच नई राजनीतिक सीमाओं ने इस आवागमन  को रोक दिया है । इससे रेगिस्तान के चरवाहों को पारंपरिक  चरागाहों के बिना मजबूर  है। इस प्रकार, सीमा बंद होने के कारण, हमने एक बहुत बड़ा चरवाहा  क्षेत्र खो दिया है।[19]

4.16     शामलात भूमि के सिकुड़ने[20] की समस्या एक जटिल समस्या[21] है क्योंकि ये दिनोंदिन काम होते जा रहे है और इसके कई प्रकार के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैजंगलों के बंद होने से, कृषि की गहनता के कारण, सिंचाई योजना में वृद्धि , सड़क निर्माण, शहरी क्षेत्र का फैलाव और बाड़ लगाना आदि के कारण भी शामलात और चराई क्षेत्रों घटते जा रहे है।[22] इसी प्रकार विदेशी बबूल [23](1877 में सिंध में दक्षिण अमेरिका से लाया गया और बाद में 1913 में राजस्थान लाया गया) ने भी देशी वनस्पति और पारिस्थितिकी तंत्र पर इस कदर  अतिक्रमण किया है कि आज रेगिस्तान की लगभग  61 प्रकार की घास, 32 प्रकार की झाड़ियाँ  और 13 प्रकार के पेड़- लुप्त होने के कगार पर पहुँच गए है।[24] इसी कारण रेणके आयोग ने चरगाह विकास पर ध्यान देने की  अनुशंषा की  थी।[25] विस्तृत अध्ययन के आधार पर,  श्री एन एस जोधा[26] ने समग्र रूप से शुष्क क्षेत्र के लिए वनों, स्थायी चरागाहों, अनुपयोगी और खेती योग्य बंजर भूमि, और वर्तमान अनुवर्ती भूमि आदि के अलावा अन्य भूमि का पालन करने वाले सामान्य संपत्ति संसाधनों (Common Resource Property)  की गिरावट के रुझान दिए। उनके विश्लेषण के अनुसार पश्चिमी राजस्थान के शुष्क क्षेत्र वाले सभी जिलों के लिए भूमि उपयोग के रुझान में वृद्धि हुई है। अध्ययन ने सुझाव दिया कि 1951-52 से इस क्षेत्र में सामान्य संपत्ति संसाधनों (Common Resource Property)  में लगातार गिरावट आ रही है। फिर, 1951-52 से 1961-62 के दौरान गिरावट सबसे बड़ी थी। पिछली अवधि की तुलना में 1961-62 में सामान्य संपत्ति संसाधनों(Common Resource Property)   में 12.4%, 1971-72 में 6.7% और 1977-78 में 4.5% की गिरावट आई थी। सामान्य संपत्ति संसाधनों(Common Resource Property)   का क्षेत्रफल भी कुल भौगोलिक क्षेत्र के 60.5% (1951-52) से घटकर 45.1% (1977-78 में) हो गया। चराई के स्थान में गिरावट का एक परिणाम सामान्य चराई भूमि की प्रति इकाई पशुओं के घनत्व में वृद्धि है। समग्र रूप से शुष्क क्षेत्र में, पशु इकाइयों के रूप में व्यक्त पशुधन का घनत्व 39 पशु इकाइ वृद्धि प्रति 100 हेक्टेयर (1951-52) से 105 (1977-78 के दौरान) हेक्टेयर चरागाह भूमि तक बढ़ गया। इसके अलावा, राजस्थान में सामान्य संपत्ति भूमि संसाधन (Common Property Land Resource)  वर्ष 2001-02 में 40.61 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2011-12 में राजस्थान के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 37.50 प्रतिशत हो गया।[27] रिपोर्ट के अनुसार, इसी अवधि के दौरान देश ने अपनी सामान्य भूमि का लगभग 19 प्रतिशत खो दिया। 2005 और 2015 के बीच लगभग 90.5 mha से सामान्य भूमि के तहत क्षेत्र घटकर 73.02 mha हो गया।[28]

4.17    इसके अलावा, मध्य प्रदेश सरकार ने चरवाहों के परम्परागत प्रवास मार्गों में बदलाव कर दिया है, इससे हमें ऐसे मार्गों से गुजरना पड़ता है जहां पर पशुओ के चारे और पानी की उचित सुविधा नहीं है, साथ ही हमारे सदियों के रास्ते बंद कर दिए है। चरवाहों के प्रवास के दौरान किस प्रकार की कानूनी बाधाएं और भेदभाव राज्यों  द्वारा किया जाता  है, इसकी एक झलक माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय  'लक्ष्मण और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य 6 मई,1983 (समकक्ष उद्धरण: 1983 एससीआर (3) 124, 1983 एससीसी (3) 275 ) से, इस प्रकार से वर्णित मिलती है :

(i)       मध्य प्रदेश के मवेशियों के मालिकों और अन्य राज्यों के मवेशियों के मालिकों ('बाहरी मवेशी' के मालिकों) पर प्रतिबंधित चराई दरों की लेवी के बीच किए गए भेद के लिए कोई तर्कसंगत आधार नहीं था।

(ii)      45 दिनों की अधिकतम सीमा निर्धारित करने में समान रूप से कोई औचित्य नहीं था, जिसके दौरान पशु को राज्य से होकर अवश्य चले जाना चाहिए। जबकि मध्य प्रदेश राज्य के निवासियों से संबंधित पशुओं के मामले में लेवी की अवधि एक वर्ष की थी, इसलिए कोई कारण नहीं था कि दूसरे राज्यों के चरवाहों के मवेशी के मामले में शुल्क 45 दिनों के लिए होना चाहिए था।

(iii)     हमारे संविधान के अंतर्गत सभी नागरिकों को संपूर्ण भारत में कही भी आने-जाने का अधिकार है, जो उचित प्रतिबंधों के अधीन है। चरवाहा चाहे किसी भी राज्य का निवासी हो, उसे अपने व्यवसाय की खोज में अपने मवेशियों के साथ मध्य प्रदेश राज्य के माध्यम से जाने और पुन: लौटने का अधिकार है।

(iv)     राज्य का वन केवल एक राज्य के निवासियों से संबंधित पशुओं के लिए आरक्षित चराई का मैदान नहीं है।

4.18    सुप्रीम कोर्ट में चरवाहों की सफलता ने मध्य प्रदेश राज्य सरकार (अधिकारीयों) को आधिकारिक प्रतिशोधी बना दिया और चरवाहों की पीड़ा को कम करने के बजाय कई गुना और बढ़ाने के लिए कड़े कदम उठाए।[29] 1986  में एक दूसरी अधिसूचना के जरिये चरवाहों के पारम्परिक  रास्तों में परिवर्तन कर दिया, यह ही कारण है 20 वर्षो के बाद (2002) चरवाहों को सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा। सतबीर रायका, अध्यक्ष राजस्थान रबारी भेड़ एवं ऊंट  पशुपालक संघ एवं अन्य विरुध्ध मध्य प्रदेश राज्य सरकार और अन्य (  Writ Petition (Civil) No.504 of 2002 along with case of Pema Ram Rebari Versus State of M.P. & ANR, Writ Petition (Civil) No.51/2000) में सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश (05.10.2017) में यह ठहराया कि सरकार ने मार्ग निर्धारित किया है जिसके द्वारा राजस्थान के पशुओं को मध्य प्रदेश से होकर महाराष्ट्र ले जाने की अनुमति नहीं दी गयी है, के मामले में  मध्य प्रदेश सरकार को निर्देश देते हैं कि वह इस शिकायत पर पुनर्विचार करें  कि उन्हें मध्य प्रदेश राज्य से गुजरते हुए कठिनाई न हो। यदि पशुओं को एक स्थान से दुसरे स्थान पर ले जाने का प्रश्न हो तब पशुओं  के ले जाने के लिए मार्ग का प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए यह कह कर कि पशुओं द्वारा वनों को क्षति पहुंचती है। सरकार के  सक्षम अधिकारीयों को उपरोक्त दर्शाए सुप्रीमकोर्ट के लक्ष्मण विरुद्ध अन्य केस में निर्णित फैसले को ध्यान में रखना चाहिए पड़ा। हमें विश्वास है कि सरकार के सक्षम अधिकारी अन्य याचिका  कर्ताओं को फिर से विवाद करने का अवसर नहीं देंगें जब हम यह कहते हैं कि निरीक्षणों (टिप्पणी) को ध्यान में लिया जाये, तब इसका हमेशा यही अर्थ है कि मार्ग निर्धारण के लिए न्यायोचित प्रतिबन्ध ही लगाये जाएँ साथ ही हम यह भी कहना चाहेंगे की सरकार को याचिका कर्ताओं ने कुछ मार्ग सुझाये हैं उन्हें भी ध्यान में रखना चाहिए

4.19    इस प्रकार,  लगभग 40 वर्ष  की मुकदमेबाजी के बाद अभी भी प्रवासी मार्ग पर कोई स्पष्टता नहीं है और यह मुद्दा संबंधित अधिकारियों के पास लंबित है। इस प्रकार, बढ़ते कराधान की प्रक्रिया के माध्यम से प्रथागत पशुचारण अधिकारों पर राज्य द्वारा अतिक्रमण का यह एक महत्वपूर्ण उदाहरण  (राजस्थान के घूमंतू चरवाहों  और मध्य प्रदेश के वन विभाग के बीच संघर्ष के इतिहास ) के तौर पर  देखा जा सकता है।[30]

5   सुझाव:  

5.1 चरवाह जीवन पद्धत्ति मरुस्थलीय पारिस्थितिकी की सबसे उत्तम जीवन पद्धत्ति और उसके अनुरूप  है।[31] इसलिए इस जीवन पद्धत्ति को संवैधानिक सरंक्षण की जरुरत है।[32] हमारे पशुओं को उपयोगी पशुओं की श्रेणी में दर्जा देकर सूचित  करने की आवश्यकता है।  घुमंतू चरवाहा भी पशु उत्पाद पैदा करते है, अत: हमे भी  किसान का दर्जा देने से बहुत सारी सरकारी योजनाओं तक हमारी पहुँच बढ़ सकती है। हमारे पशु उत्पादों को जैविक उत्पाद का दर्जा देकर सरकार न्यूनतम मूल्य पर खरीदने की व्यवस्था से हमारी जीवन पद्धत्ति को प्रोत्साहन मिलेगा। घुमंतू चरवाहों के लिए राष्ट्रीय चरवाहा नीति बने और  हमारे सदियों पुराने पारम्परिक प्रवासी मार्गों को कानून के माध्यम से वैधानिक दर्जा मिलने से हमें प्रवास के दौरान मार्गों पर प्रतिबन्ध या स्थानीय दखलंदाजी से छुटकारा मिलेगा। देशीय मरुस्थलीय  पारिस्थितिकी को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जाए।  राष्ट्रीय स्तर पर हमारे लिए एक राष्ट्रीय सहायता केंद्र[33] की स्थापना हो जो हमारे घुमंतू चरवाहा जीवन में दिनों दिन की समस्याओं को सुलझाने में मदद कर सके।  रासायनिक खाद को मिल रही सब्सिडी  से दोगुनी सब्सिडी  प्राकृतिक खाद को दी  जाए।  प्रतिबंधित वन क्षेत्रों में पशु चारण प्रतिबंध के नकारात्मक प्रभावों पर भी अनुसंधान हो ताकि मर्यादित पशु चारण के द्वारा इन प्रतिबंधित क्षेत्रों में  भी नकारात्मक प्रभाव को काम किया जा सकें । प्रतिबंधित क्षेत्रों की उर्वर क्षमता बढ़े और कठोर बीजों वाले पौधे भी  जल्दी अंकुरित हो, इस  हेतु पशुओं को भी तय मर्यादित  समयावधि में इन क्षेत्रों में चरने में छूट प्राप्त हो।  इससे प्रतिबंधित क्षेत्रों की उर्वर शक्ति बढ़ेगी, दीमक की समस्या कम होगी और पादप-पशु विनिमय की प्राकृतिक प्रक्रिया भी बाधित नहीं होगी। हम अर्ध-घुमंतू परिवार के सदस्यों  के बच्चों के शिक्षा के लिए, पशुपालन में डिग्री या डिप्लोमा के लिए  सरकार  कुछ योजनाएं बनाये ताकि हमारे बच्चे भी व्यावसायोन्मुखी शिक्षा ले सकें। इसी तरह हमारे डेरों (टेम्पररी टैंट्स ) के साथ  मानव और पशु दोनों के लिए मोबाइल दवाई सुविधा लिंक करवाई जाए और इसके लिए हमारे में से ही किसी 12वी पास बच्चे को सरकार डिग्री अथवा डिप्लोमा के द्वारा यह जिम्मेदारी सौंपे ताकि हमारे अर्ध-घुमंतू जीवन शैली के अनुरूप हमें और हमारे पशुओं को समय पर आधारभूत दवाई मिल सकें। हम पिछले हजारों वर्षों से पशुओं की नस्लों की विशुद्धतता बनाये रखे है।  ऐसे विशुद्ध नस्ल के संरक्षण प्रदात्ता ( पशु आनुवंशिक संसाधनों का संरक्षण)  होने के नाते हमें प्रोत्साहन राशि प्रति पशु और देशी नस्ल के अनुसार एक टोकन मनी के तौर पर ही सही  प्रति पशु प्रति वर्ष देने की व्यवस्था हो जिससे हमारे इस ऐतिहासिक प्रयास (पशु आनुवंशिक संसाधनों का संरक्षण)  को सरकारी मान्यता मिले। ऐसा करने से हम और हमारी आने वाली पीढ़ियों को गर्व का अनुभव होगा।

5.2  भेड़ प्रवास (Sheep migration) पर राष्ट्रीय कार्यशाला, जयपुर (1991) में जो 13 अनुशंषाये[34]  की गई, वे इस प्रकार थी , इन्हे लागू किया जाना चाहिए :  

(i)       भेड़ प्रवास को व्यवस्थित तरीके से विनियमित करने के लिए भेड़ प्रवास से संबंधित राज्यों के विभिन्न विभागों के प्रशासनिक प्रमुखों के स्तर पर समन्वय होना चाहिए ताकि चरवाहों को स्वास्थ्य कवर, पानी और ऊन, मांस और जानवर आदि के विपणन जैसी उचित सुरक्षा और अन्य सुविधाएं प्रदान की जा सकें।

(ii)      ऊपर वर्णित सेवाएं प्रदान करने के लिए प्रवास मार्गों पर सेवा केंद्र स्थापित किए जा सकते हैं।

(iii)      भेड़ और भेड़ चरवाहों के विकास के लिए संपर्क स्थापित करने और उचित ध्यान देने के लिए प्रत्येक भेड़ समृद्ध राज्य में अलग विभाग बनाया जाना चाहिए ताकि उन्हें बेहतर भेड़ प्रजनन, प्रबंधन और स्वास्थ्य देखभाल वितरण प्रणाली को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके।

(iv)      भेड़ पालन करने वाले प्रत्येक महत्वपूर्ण राज्य को भेड सुधार के लिए सुपरिभाषित समयबद्ध लक्ष्यों के साथ उपयुक्त दीर्घकालिक शुरुआत विकसित करनी चाहिए और इसे प्राप्त करने के लिए उपयुक्त विस्तार प्रणाली विकसित करनी चाहिए।

(v)      भेड़ प्रवास से संबंधित मामले और विवादों को अंतरराज्यीय परिषद (inter-state council) के दायरे में लाया जा सकता है और चराई शुल्क शुल्क नाममात्र होना चाहिए।

(vi)      ऊन को कृषि उत्पाद  घोषित किया जाना चाहिए और एनसीडीसी चार्टर में शामिल किया जाना चाहिए। कृषि मूल्य आयोग ऊन के लिए राष्ट्रीय समर्थन मूल्य तय कर सकता है।

(vii)     राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर चारागाह विकास और चारा उत्पादन निगमों की स्थापना की जानी चाहिए।

(viii)    राज्यों के भीतर भेड़ों के लिए सिल्वी-चारागाह (silvi-pasture) स्थापित करके निकटवर्ती राज्यों में भेड़ों के प्रवास को कम किया जा सकता है। प्रत्येक राज्य में, दुबले मौसम के लिए  चराई आरक्षित हो । राजस्थान में इंदिरा गांधी नाहर परियोजना के पश्चिमी तट को इस उद्देश्य के लिए आवंटित किया जा सकता है।

(ix)      स्थापित  चरागाह का प्रबंधन पंचायतों, भेड़ किसान सहकारी समितियों, वन विभाग, चारागाह विकास निगम द्वारा किया जाएँ ।

(x)      भेड़ चरवाहों को अपनी जमीन पर चारागाह स्थापित करने और चारे के पेड़ उगाने के लिए सब्सिडी और बैंक ऋण दिया जा सकता है।

(xi)      भेड़ों को पात्र पशुओं की सूची में शामिल किया जाना चाहिए, जिन्हें अकाल के दौरान चारा सब्सिडी और अन्य रियायतों लागू हो।

(xii)      राजस्थान काश्तकारी अधिनियम के अनुसार वर्तमान में गोचर भूमि रखने के लिए भेड़ और बकरियों की गणना गाँव की आबादी में नहीं की जाती है। गाँव में केवल बड़े जानवरों की गिनती की जाती है। राजस्थान काश्तकारी अधिनियम में तद्नुसार संशोधन किया जाना चाहिए और भारी पलायन को रोकने के लिए प्रत्येक गाँव में भेड़ चराने के लिए पर्याप्त क्षेत्र रखा जाना चाहिए।

(xiii)     वर्तमान में वन विभाग पंचायतों द्वारा विकसित आरक्षित चरागाहों में भेड़ों को चराने की अनुमति नहीं है।  इन क्षेत्रों में भेड़ों को चराने की अनुमति दी जानी चाहिए।

5.3  पर्यावरण मंत्रालय के द्वारा 1990 में चराई और पशुधन प्रबंधन पर गठित अंतर-अनुशासनात्मक सलाहकार समूह ने भारत सरकार को जो अपनी रिपोर्ट दी थी उसकी समीक्षा करके घुमंतू चरवाहों के कल्याण सम्बन्धी सुझावों को लागू किया जाए।

5.4 सरकार को विशेष राष्ट्रीय क़ानून के माध्यम से प्रवास के पारंपरिक मार्गों को वैधानिक मार्ग घोषित करना चाहिए, ताकि पारंपरिक प्रवासी मार्ग को मान्यता दी जा सके। बुर्किना फासो, गिनी और माली ने ऐसे कानूनों को अपनाया है जो पशुपालकों को राष्ट्रीय सीमाओं के पार जानवरों को स्थानांतरित करने का अधिकार प्रदान करते हैं। कोटे डी आइवर में, डिक्री नंबर 96-431 (जून 1996) बाहरी पारगमन को नियंत्रित करता है, एक कैलेंडर स्थापित करता है और देश के भीतर प्रवास को नियंत्रित करता है।[35]

5.5  सरकार को गौचर, ओरण  और अगोर, अन्य कॉमन्स और उन तक जाने वाले मार्गों की रक्षा और विकास सुनिश्चित करना चाहिए। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अनुसार इन क्षेत्रों के सभी अवैध कब्जे को तुरंत हटाया जाना चाहिए।

5.6  अरावली के जंगल में अवैध गतिविधियों के लिए घुमंतू चरवाहों ने हमेशा व्हिसलब्लोअर का काम किया है। एक निश्चित अवधि के अंतराल के बाद नियमित आधार पर अरावली वन क्षेत्र में पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिए चरने की अनुमति दी जानी चाहिए जैसे कि  हर पांच साल के बाद वन परिक्षेत्र खोला जाना चाहिए।

5.7  सरकार को फसल के बाद अनुवर्ती भूमि (fellow land)पर चरने के लिए पशुचारण का समर्थन करना चाहिए और  न्यूनतम शुल्क पर पड़ोसी राज्यों द्वारा चरने की अनुमति का प्रबंध करवाना  चाहिए।

5.8  रेगिस्तान के देशी पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली के लिए  प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा (विलायती बबूल) और लेंटाना (लंताना कैमरा) का  उन्मूलन किया जाए। देशी रेगिस्तानी पेड़  यानि  खेजड़ी (प्रोसोपिस सिनेरिया), कुमाटियो / गोंद, अरबी (बबूल सेनेगल), रोहिडा  / लुआर / रेगिस्तान सागौन जैसे पौधों  का आक्रामक रोपण किया जाए  । (टेकोमेलांडुलता), हिंगोट/हिंगोटो/हिंगुआ/हिंगोर्नी/रेगिस्तानी खजूर (बालनाइट्स रॉक्सबर्गी), जाल/पीलू/धालू/टूथब्रश/सरसों (साल्वाडोरा पर्सिका), खारो जल/बड़ा पीलु (साल्वाडोरा ओलियोइड्स), बेर/भारतीय जुजुबे (ज़िज़ीफ़स) ), कांकेरा/लाल स्पाइक-कांटे (मेटेलस सेनेगलेसिस), कैर/केर/करील (कैपारिस डेसीडुआ), बुई/रेगिस्तान कपास/बुडो (एर्वा जावनिका), देसी बबूल (वाचेलिया निलोटिका), बाओनली (बबूल जैक्क्वेमोंटी), सिनिया/सेन्ना /स्वर्णपत्री (कैसिया ऑगस्टिफ्लोरा) आदि को गौचर, ओरण ,अगोर, कॉमन्स और उन तक जाने वाले मार्गों में लगाए जाए।

5.9  सभी पशु उत्पादों (ऊन, हड्डियों, दूध, गोबर, घी) के लिए न्यूनतम खरीद मूल्य या न्यूनतम समर्थन मूल्य हो  और पशु उत्पादों की बिक्री के लिए चरवाहा मंडी की स्थापना की जाए।

5.10    घुमंतू  चरवाहों  के पशु उत्पादों को पशु स्वास्थ्य विभाग के माध्यम से शुद्ध जैविक उत्पादों का दर्जा दिया जाएगा।

5.11    आपात स्थिति के दौरान सहायता प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजातियों के राष्ट्रीय आयोग के तहत स्थायी राष्ट्रीय सहायता केंद्र (एनएचसी) स्थापित किए जाएंगे। आपात स्थितियों में, महामारी की अवधि में , प्राकृतिक आपदा के समय, असामाजिक तत्वों के साथ मुठभेड़ के समय और आकस्मिक मौतें आदि के समय ये केंद्र तुरंत सहायता प्रदान कर सकें। ये स्थायी राष्ट्रीय सहायता केंद्र , घुमंतू चरवाहों  द्वारा सामना की जाने वाली समस्याओं के वास्तविक समय के संचार के आधार पर संबंधित अधिकारियों से तत्काल मदद के लिए अनुरोध कर सकते हैं।

5.12    सरकार को जानवरों और चरवाहों दोनों के लिए बीमा शुरू करना चाहिए।

5.13    जैविक पशु उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए सरकार को रासायनिक उर्वरक आधारित  सब्सिडी को अलग करना चाहिए और इसे जैविक खाद (खाद)  से जोड़ना चाहिए।  राष्ट्रपिता महात्मा  गांधी ने पोरबंदर के लोगों को यह कहकर स्वराज्य या रामराज्य को बढ़ावा देने की सलाह दी कि 'आपके संबंध आपके गांवों के साथ, रबारी और बरडा  के मेर्  के साथ होने चाहिए'[36]। इस प्रकार, गांधीजी के अनुसार  देसी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिए बिना  स्वराज्य नहीं हो  सकता।

5.14    राष्ट्र के लिए पशु आनुवंशिक संसाधनों को बनाए रखने के लिए चरवाहों  को प्रोत्साहन प्रदान करना चाहिए और भविष्य के लिए पशु आनुवंशिक संसाधनों को बनाए रखने के लिए शुद्ध आनुवंशिक प्रजनन  स्टोर सेंटर की स्थापना करना चाहिए।

5.15    चरवाहों द्वारा पारंपरिक नस्लों और  उनके संबंधित पारिस्थितिकी प्रणालियों के संरक्षण पर सतत उपयोग की निर्भरता को  मान्यता देनी चाहिए । पारंपरिक नस्लों को सामूहिक उत्पाद संपत्ति,  स्वदेशी ज्ञान और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए।

5.16    राजस्थान से अन्य राज्यों में नर-ऊंटों के व्यापार पर प्रतिबंध हटाने के लिए राजस्थान ऊंट (वध निषेध और अस्थायी प्रवासन या निर्यात का विनियमन) अधिनियम, 2015 में संशोधन किया जाए। यह मांग पैदा करेगा और अंततः राजस्थान में  ऊंटनियो  की आबादी में वृद्धि करेगा। घुमंतू चरवाहों  को राजस्थान ऊंट (वध निषेध और अस्थायी प्रवास या निर्यात का नियमन) अधिनियम, 2015 की धारा 5 के तहत परमिट प्राप्त करने से छूट दी जानी चाहिए। ऊंट, गधा और कुत्ता भी घुमंतू चरवाहा जीवन पद्धत्ति का अभिन्न अंग है। घुमंतू चरवाहों  को राजस्थान ऊंट (वध निषेध और अस्थायी प्रवासन या निर्यात का नियमन) अधिनियम, 2015 की धारा 14 के तहत वास्तविक व्यक्ति और ऊंटों के उद्धारकर्ता के रूप में अधिसूचित किया जाना चाहिए, जिन पर उक्त अधिनियम का विनियमन लागू नहीं होगा।

5.17    कृपया केवल चरवाहों द्वारा रखे गए जानवरों की संख्या पर भरोसा न करें, ये सभी चरवाहों के लिए आर्थिक रूप से फायदेमंद नहीं हैं। उनमें से कई वास्तव में मालिक पर बोझ हैं क्योंकि कुछ जानवर बूढ़े हैं, कुछ उत्पादक भी नहीं हैं, कुछ बीमार हैं, कुछ अभी भी उत्पादन आदि के लिए बहुत छोटे हैं और इसलिए, वास्तविक उत्पादक और लाभकारी झुंड वास्तविक संख्या की तुलना में बहुत कम  संख्या होती हैं।  इन गैर-आर्थिक जानवरों को झुंड के साथ भावनात्मक बंधन और ऐसे जानवरों की बिक्री पर वर्जित परंपरा के एक भाग के रूप में लिया जाता है।

5.18    ऑस्ट्रेलियाई सरकार के अनुसार, वर्तमान में ऑस्ट्रेलिया के रेंज लैंड इकोसिस्टम में दस लाख से अधिक जंगली ऊंट हैं। असल में ये भारतीय  पालतू ऊंटों, जिन्हें  ऑस्ट्रेलिया  ले जाय गया था , के ही वंशज  है। परन्तु कई वर्षों तक मानव से दूर रहने के कारण जंगली हो गए है।  ऑस्ट्रेलिया के अनुसार, जंगली ऊंट अपने व्यापक दायरे में प्राकृतिक पर्यावरण के साथ-साथ सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक मूल्यों को महत्वपूर्ण नुकसान पहुंचा रहे हैं।[37] यदि अप्रबंधित छोड़ दिया जाता है, तो अगले 8-10 वर्षों में जंगली ऊंटों की संख्या दोगुनी हो जाएगी और नए क्षेत्रों में जंगली ऊंटों का विस्तार होगा। यदि ऐसा होता है, तो जंगली ऊंटों के हानिकारक प्रभावों की मात्रा और परिमाण में वृद्धि होगी। अपने ऊंटों से तंग आकर, ऑस्ट्रेलिया ने उन्हें एक "कीट" घोषित कर दिया है और उन्हें एक विदेशी आक्रामक प्रजाति के रूप में मानता है जिसे फैलने से तत्काल रोका जाना चाहिए। उनकी आबादी की जांच के लिए सबसे व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाने वाली विधि हवाई हत्या है जिसमें हजारों जंगली ऊंटों को हेलिकॉप्टरों का उपयोग करके स्निपर्स द्वारा गोली मार दी जाती है।[38]  कई पशु प्रेमी और रैबारी  चरवाहे  इस क्रूरता से हैरान हैं। ऑस्ट्रेलिया में कोई ऊंट समुदाय नहीं है और इसलिए, ऑस्ट्रेलिया को ऊंट विशेषज्ञों की मदद और सहायता प्राप्त करने के लिए भारत से संपर्क करना चाहिए और  रैबारियों  से  जंगली ऊंटों का प्रबंधन करवाना  चाहिए। ऑस्ट्रेलियाई ऊंटों का उपयोग विश्व की आबादी के बड़े लाभों के लिए किया जा सकता है, यानी ऊंटनी का दूध मधुमेह रोगियों के लिए एक चिकित्सा के रूप में।

5.19    पशुचारण से संबंधित कोई भी सिफारिश करते समय कृपया सामुदायिक जैव-सांस्कृतिक प्रोटोकॉल ( Bio-Cultural Protocol ) या रबारी प्रोटोकॉल (Rabari Protocol)  का उपयोग करें, जो समुदायों के प्रथागत मानदंडों और कानूनों पर आधारित हैं।